Friday, April 20, 2018

Diseases in Indian Cows

Recent report of 55 HF cows detected having TB at Anand is a reason for worry about safety of Milk being supplied by Indian Dairy Industry. While in Europe such cows are culled, there is no information about what the Indian authorities propose to do in this and such cases.
It may not be out of place to record that Indian breeds of cows have proved to have excellent disease resistance. Given adequate feed and clean stall conditions Indian Breeds of cows do not suffer from commonly reported problems of Mastitis,TB etc.

Vedic Wisdom About Cows


Goat Milk

According to Rig Veda Milk from a cow is considered a minor product. Food produced by cow based agriculture is more important to feed the world, in addition, there is the great significance of पञ्चगव्य products.
However, if Milk is to be considered the main produce desired, a goat is extremely more efficient at converting food into milk. Weight for weight it is a more efficient milk producer than the dairy cow.

Goat's milk does not have to be pasteurized, as there is a very low incidence of tuberculosis in goats and brucellosis. However, as with all unpasteurized milk, it should be boiled before giving to children under 2 years old or to pregnant women.
Compared to cows’ milk, goats’ milk and its products are very white. Also, the cream does not rise so readily due to the smaller fat globules. It can be used to produce a wide range of dairy products and has the advantage that, if frozen directly after milking, it will store well in this condition.

Monday, April 24, 2017

1.                    गौ और पर्यावरण
लगातार पर्यावण की क्षति से होने वाले तापमान के बढ़ने से उत्पन्न परिस्थितियों जो इस पृथ्वी पर ध्रुवी क्षेत्रों के हिम खंड पिघल जाने पर समुद्र जल का स्तर बढ़ने के कारण आवासीय क्षेत्रों की भूमि  लगातार  जल मग्न हो कर कम होती जा   रही है | भारत वर्ष का  6100 किलोमीटर लम्बा समुद्र तट है | बड़े नगर मुम्बइ  और चेन्नइ अधिक जनसंख्या वाले नगर बढ़ते तापमान से  विशेष रूप से प्रभावित होते हैं | NEERI  के अनुसंधान के अनुसार पर्यावरण की क्षति के प्रभाव से केवल मुम्बइ को  2050 तक 35 लाख करोड़ के आर्थिक नुकसान का अनुमान है |  तापमान 1.62 डिग्री बढ़ा है और समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 2.4 मिलीमीटर  बढ़ा है |
1.                        1. जिस के फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाएं जैसे cloud burst से अचानक अत्यधिक वर्षा से आवागमन के साधन जन जीवन अस्त व्यस्त, महामारियों के रोग , मकानों का गिरना होता जाता  है | जो किसी भी सरकार के बस का नहीं है |
2.                बढ़ते तापमान और हुमस (ह्युमिडिटी) श्वास के संक्रामक रोग एलर्जी , भिन्न भिन्न प्रकार के फ्लू, एस्थमा ,फेफड़ों के रोग,मलेरिया ,दूषित जल के कारण  के  आंत्रशोध, डायरिआ, हेपेटाइटिस जैसे असाध्यरोग आज भी बढ़ते दिखाइ दे रहे  हैं , वे और भयानक रूप ले लेंगे | बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण कर्मचारियों की अनुपस्थिति से देश के उत्पादन की  ही नहीं व्यक्तिगत आमदनी की भी हानि  होगी | बीमारियों के बढ़ते खर्च, चिकित्सालयों की लगातार कमी  खान पान की सब वस्तुओं की बढ़ती कीमतों पर जनता के असंतोष और कठिनाइ के लिए कोई भी उपाय कर पाने में सब  सरकारें  अपने को असमर्थ पा रही हैं |
मीडिया विशेषज्ञ इन सब के लिए राजनीति की  शतरंग खेल रहे हैं |  उन सब के लिए मोदी जी की सरकार ज़िम्मेवार है | असली बात पर्यावरण संरक्षण की बात और हम सब का दायित्व क्या है यह  कोइ क्यों नहीं करता ? हुगली नदी और गङ्गा के डेल्टा  पर बसे कलकत्ता नगर की तो पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत  गम्भीर परिस्थिति है | क्योंकि यह नगर समुद्र तट से केवल 1 मीटर ऊपर है | बहुत सा नगर तो कछार की भराइ से बना है (साल्ट लेक सिटी )| सर्दियों और वर्षा ऋतु में अब कोलकता में तापमान अधिक होता है |  समुद्र के जल स्तर के बढ़ने से , भूमि स्खलन से समुद्र का नम्कीन जल 100 किलोमीटरतक के तटीयप्रदेश के जल को प्रभावित करता है | स्वच्छ पेय जल की समस्या गम्भीर रूप धारण कर रही है |

2. पृथ्वी पर तापमान  बढ़ने से कृषि द्वारा खाद्य उत्पादन कठिन  हो जाने पर  मानव जीवन के खाद्य सुरक्षा भी कठिन हो जाएगी |
तब वैज्ञानिक दृष्टि से प्रथम तो मांसाहार पर सम्पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी |
कोइ भी खाद्य पदार्थ बिना जल और ऊर्जा के उत्पन्न और ग्रहण नहीं किया जा सकता | सब  खाद्य पदार्थों  की उपलब्धता में परोक्ष रूप में जितना जल लगता है उस का वैज्ञानिक दृष्टि से  अनुमान  लगाया जाता है , वह उस खाद्यपदार्थ की उपलभ्ध्ता का पद्चिह्न (Footprint) कहलाता है |  अमेरिका के एक विश्लेषण के आधार पर निम्न तालिका प्रस्तुत है | इस से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भविष्य में पृथ्वी पर मनुष्य की खाद्य सुरक्षा खाद्य को ध्यान में रखते हुए शाकाहार को प्रोत्साहन देना होगा |
इसी वैज्ञानिक दृष्टि से प्राचीन भारत में मांसाहार वर्जनीय और गोमांस निषेध था |
निम्न तालिका से यह स्पष्ट है की भारतवर्ष में कि मांसाहार विशेष तौर पर गोमांस पर  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए |

Water & Energy Footprints of Food items as per American Study                     

खाद्य पदार्थ उपलबधता में परोक्ष जल और ऊर्जा की आवश्यकता

Sl.No.
क्रमांक
1 Kg Food Item

1 किलो खाद्य पदार्थ  
Liters Water required
जल की आवश्यकता
लीटर में
 KWhEnergy Required
ऊर्जा की आवश्यकता
किलोवाट घंटों में
11  
Lettuce      लेटस सलाद
130 L
 Nil
2 2
Potatoes      आलू
250 L
Nil
3 3
Apples      सेब
700 L
3.7KWh
4 4
Corn Maize मक्का भुट्टा
900 L
0.95 KWh
5
5 5
Milk           दूध
1,100 L
1.6 KWh
66
Ground Nuts  मूंगफली
3,100 L
Nil
7 7
Eggs               अण्डे
3,300 L
8.8 KWh
8 8
Chicken         मुर्गी
3,900 L
9.7 KWh
9 9
Pork  सूअर का मांस
4,800 L
28 KWh
110
Cheese       चीज़
5,000 L
15 KWh
111

Olive Oil  ओलिव आयल
14,500 L
Nil
1
112

Beef       maans  गोमांस
          15,500 L

69 KWh

  
पर्यावरण सुरक्षा में गौ माता का वैज्ञानिक महत्व
Allan Savory work
दक्षिणी रोडेसिआ में गत 1960 में वन और पर्यावरण में कार्य कर रहे  वैज्ञानिकों ने जब विश्व के बदलते पर्यावरण के कारण  वहां के हरे भरे  वनीय क्षेत्र की हरयाली समाप्त होते देखी   तो सब का यह विचार था कि शाकाहारी पशु हाथी, गौ इत्यादि वनों की हरियाली खा कर समाप्त कर देते हैं | उस वन में हाथी बड़ी संख्या में थे | निर्णय हुआ कि सब हाथियों  का वध कर दिया जाए | इस अभियान में उस दशक में 40,000 से अधिक हाथी मारे गए  जो आर्थिक व्यापार की दृष्टि से भी बड़ा लाभदायक रहा | परंतु हाथियों के मारे जाने के बाद बड़ा आश्चर्य हुआ कि जो रही सही हरियाली बची थी वह भी समाप्त हो गई |
दोबारा अनुसंधान के लिए हाथी तो अब समाप्त हो चले थे , शाकाहारी बड़े पशुओं से अनुसंधान करने के लिए केवल गौओं पर ध्यान गया | कुछ क्षेत्र चुने गए और वहां गौओं के बड़े समूह रखने की योजना बनी | बड़ा अश्चर्य हुआ जब यह देखा कि जिस भूमि पर  गौओं का गोबर गोमूत्र  भूमि पर उन के पैरों से  खूब मिला हुआ था  वहां जब अगली बार वर्षा हुई तो वर्षा का पानी  बह कर आगे नहीं गया और वहीं भूमि में सोख लिया गया | भूमि की आर्द्रता बढ़ जाने से हरियाली पुन:उत्पन्न होने लगी | अनुसंधान से यह पाया गया कि जिस भूमि में 1 किलो गौ का  गोबर  मिला होता है वह 9 गुणा यानि 9 किलो पानी सोख कर रखती है | इस प्रकार उजड़े जंगलों में गौ  के समूह पालन करने से उन्हें पुन: हरा भरा बनाया जा सका |
एलेन सेवरी नाम के पर्यावरण वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे , कि गौओं के बड़े बड़े समूह बना कर योजना बद्ध तरीके से पृथ्वी पर छोड़ कर  आधुनिक काल में पर्यावरण  सुधार के लिए प्रागितिहासिक काल (Prehistoric  times ) जैसी व्यवस्था की कृत्रिम  रूप से नकल की जानी चाहिए |   गौएं ही बड़े स्तर पर पर्यावरण सुरक्षा का सब से सरल उपाय है |
जितनी  अधिक गौएं भूमि पर घूम कर चरते हुए गोबर छोड़ेंगी उतनी ही भूमि की वर्षा के जल को समाहित करने की क्षमता बढ़ती है, भूमि में कार्बन डाइओक्साइड गैस को समाहित करनेकी क्षमता बढ़ती है जिस के परिणाम स्वरूप ओज़ोन आच्छादन सुरक्षित होता है |  इस प्रकार गौओं की संख्या बढ़ा कर गोचरों में छोड़ने के साथ  अन्य गैर पारम्परिक ऊर्जा के सौर ऊर्जा जैसे स्रोतों के उपयोग से विश्व में पर्यावर्ण की पूर्ण रूप से सुरक्षा सम्भव हो सकेगी | भारत वर्ष की गो रक्षा और सौर ऊर्जा के आधार पर्यावरण नीति पर विश्व की सब से उन्नत पर्यावर्ण सुरक्षा नीति सिद्ध होने जा रही है | इस प्रकार पर्यावरण में बदलाव के कारण से विश्व के तापमान में जो बराबर वृद्धि हो रही  है रोकी जा सकेगी |  भारत वर्ष में विश्व के देशों में सब से अधिक कृषि योग्य भूमि बताइ जाती है | जिस में से लगभग आधी ऊसर पड़ी है | समस्त ऊसर भूमि को गौओं द्वारा कृषि योग्य बनाने का साधन जैसा आधुनिक वैज्ञानिक एलेन सेवरी बता रहे हैं  वही ऋग्वेद 6.47. 20 से 23 में भी दिया गया है |
गौओं की सुव्यवस्था से  गोचर स्वयं से हरे भरे रहते हैं | गोचर में पोषित गौओं के दूध में औषधिक गुण आ जाते हैं , साथ में गौ के गोचर मे पोषण से गौ के आहार पर व्यय लगभग शून्य होने से दूध लगभग मुफ्त पड़ता है |  इस प्रकार गौ का गोचर से सम्बंध पर्यावरण  और स्वास्थ्य कि दृष्टि से अमूल्य होता है  |
देश में जितनी गौएं अधिक होंगी  और गोचरों में आहार ग्रहण करेंगी उतना ही अधिक गोबर से जैविक कृषि हो सकेगी | कृषि  की  भूमि की आर्द्रता बढ़ी रहने से सिंचाइ के लिए पानी और सिंचाइके पानी के लिए  बिजली की भी आवश्यकता बहुत कम हो जाती है |

इसी लिए गौ के इतने बड़े महत्व के कारण भारतीय संस्कृति में गौ को अघ्न्या कह कर गो वध के  दोषी को मृत्यु दण्ड  का प्रावधान दिया गया है |

 पाश्चात्य विद्या से प्रभावित भारतीय समाज और प्रसार माध्यम , गौ के इस महत्व के वैज्ञानिक महत्व के बारे में कुछ  जानने के बाद भी  केवल राजनैतिक  लाभ के लिए गौ रक्षा को हिंदुओं द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों पर अपनी मनमानी थोंपने का आरोप लगा रहे हैं |

Sunday, May 15, 2016

Cow Dung cleaning for better milk productivity

गोबर के प्रबंध  से गौ को स्वस्थ  रखना 
इमा धियं सप्त शीर्ष्णी पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत् ।
तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्यो ऽयास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ।। ऋ 10.67.1 अथर्व 20-91-1,
(तुरीयं स्विद्‌ जनयद) सूर्य के सात रष्मियों के प्रकाश द्वारा चार पीढ़ी वाले नातियों –सात प्रकार के रोगनाशक तत्व और - को नष्ट करने का प्रबंध किया.
(विज्ञान के अनुसार दही में 7 प्रकार के रोग निरोधक प्रोबायोटिक लेक्टो बेसिलाइ होते हैं. गोबर गोमूत्र में सात प्रकार के कीट नाशक छिपे हैं. उसी प्रकार गोबर में चार पीढ़ी के विनाशकारी कीट भी स्वजन्य होते हैं, (1) गौ का रक्त चूस कर गोबर में अण्डे ,(2)  अण्डे से लार्वा, (3) लार्वा से प्युपा, (4) प्युपा से मक्खी चार रूप ले कर बनती है. इसी को वेद चार पीढ़ी के नाती  विनाश कारी तत्व बताता है, गोबर को 3 दिन  पुराना होने से पहले  काट लगा कर सूर्य के प्रकाश में  सुखा कर इन  अण्डों को नष्ट किया जाना चाहिए . अन्यथा  इन अण्डों से एक विशेष प्रकार की मक्खी पैदा हो जाती है | 
यह गोशाला के आस पास की मक्खी विशेष प्रजाति की होती है जो साधारण मक्खियों से कुछ छोटी होती है.  यदि गोबर को तीन दिन से पहले काट लगा कर धूप में सुखाया न जाए तो यही चार पीढ़ी मे गौ की विनाशकारी मक्खी बनती है.  इसे आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में Horn Fly हार्न मक्खी कहते हैं. यह दिन में 30 बार तक गौ पर बैठ कर रक्त चूसती है. इस के कारण गौओं के स्वास्थ्य और दुग्ध उत्पादन पर दुष्प्रभाव होता है. यहां तक कि दुग्ध उत्पादनमें 20% तक की गिरावट आ सकती है.) 
(गर्मी में शरीर को ठंडा रखने के लिए पसीना आता है | हर एक प्राणी के पसीने में उस के शरीर से एक गंध भी आती है | देसी गाय के पसीने में भी एक प्रकार की गंध  होती  है | गाय की  त्वचा में भी पसीने कि - स्वेद की ग्रंथियां होती हैं | गौ की प्रजाति जितने गरम प्रदेश की होती है उस की त्वचा में उतनी ही स्वेद ग्रंथियां अधिक होती हैं | गाय के स्वेद पसीने की गंध से उस पर मक्खी आना पसंद नहीं करती | जिस गाय को जितना अधिक पसीना आता होगा उस पर उसी अनुपात में मक्खी कम आएगी| इस प्रकार देसी गरम प्रदेशकी गाय पर यह गोशाला की विशेषमक्खी कम आती है | परंतु ठंडे प्रदेश की  होल्स्टियन फ्रीज़ियन गाय पर  यह  मक्खी अधिक आएगी | जितनी मक्खी अधिक आएगी उतना ही गाय कष्ट में रहेगी बीमार रहने  लगेगी और दूध का उत्पादन कम हो जाएगा| यह बात भेंस पर भी  लागू होती है |
Horn fly lives by sucking blood from cows. After their feed of blood, next they sit on cowpat. Horn Fly lays eggs in cow pats, where they hatch as maggots; grow in to pupa and from pupa they emerge as Horn Flies. Horn flies develop from the egg to adult stage within 10 to 20 days, and the adults live for about 3 weeks, feeding 20 to 30 times a day on a cow to suck its blood 20 to 30 times a day. Move on to cowpat to lay the eggs after every blood sucking.  If the cow pat is cut up and exposed to sun by spreading, the eggs get destroyed by solar radiations, and no Horn flies are born. Horn flies are known to very adversely affect health of cows and reduce milk yield by as much as 20%
The Cow dung should not be allowed to accumulate in Goshalas.
It should be collected and removed as early as possible and spread out exposed to the sun that will not allow any Horn fly eggs to hatch in to flies.
Alternatively collect all the cow dung and use it to feed the biogas digester. There will be no flies. The biogas is excellent source of fuel energy. Biogas slurry mixed with water is excellent organic fertitigation-irrigation integrated with fertilizers.

Saturday, May 14, 2016

Improving health & productivity of Cows - Prepartum postpartum care in Vedas

      संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्ष: ।
पीयूषमग्न्ने  यतमस्तितृप्सात् तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन् ।।
RV10.87.17,AV8.3.17
जो लोग अमानवीय ढंग  से गौ का दोहन साल भर  करते  हैं, (गर्भ मे पल रहे बच्चे भ्रूण के पोषण  का ध्यान नहीं करते) जो पीयूष( आरम्भ के दूध)  का नवजात बछड़े को पिलाने अथवा अग्नीहोत्र  में    का प्रयोग नहीं करते और उस का  स्वयं की तृप्ति के लिए उपयोग करते हैं ऐसे प्रतिकूल चलने वालों के  (अर्चिषा मर्मन्‌ विध्य) मर्म स्थलों को ज्ञान की ज्वालाओं  से बींध दो (उत्तम प्रभावशाली शिक्षा के उपदेश से उन की भावनाओं को जगाओ ) |
Ignortant greedy people induge in milking a cow all the year and ignore the requirements of nutrition by the  fetus growing in cow’s womb. People also do not feed the newborn with colostrums and use the colostrums for their own use. Such people require to be educated to sensitize them towards the importance taking care of  Fetus and newborn by providing better nutrition for future of good cows.  

( In modern Dairy practice, newborns are raised on synthetic ‘milk replacers’. While bovine   Colostrums are  utilized by pharmaceutical industries in multiple preparations : “People originally got interested in bovine colostrum because of the high antibody levels. They thought that the antibodies might prevent intestinal infections in people, but they seem to be wrong.

Some athletes use bovine colostrum to burn fat, build lean muscle, increase stamina and vitality, and improve athletic performance. Bovine colostrum is not on the banned drug list of the International Olympic Committee.

Bovine colostrum is also used for boosting the immune system, healing injuries, repairing 
nervous system damage, improving mood and sense of well being, slowing and reversing aging, and as an agent for killing bacteria and fungus.

Bovine colostrum is used in the rectum to treat inflammation of the 
colon (colitis).

Researchers have created a special type of bovine colostrum called “hyperimmune bovine colostrum.” This special colostrum is produced by cows that have received vaccinations against specific disease-causing organisms. The vaccinations cause the cows to develop antibodies to fight those specific organisms. The antibodies pass into the colostrum. Hyperimmune bovine colostrum has been used in clinical trials for treating AIDS-related diarrhea, diarrhea associated with graft versus host disease following bone marrow transplant, and rotavirus diarrhea in children”.) 

Friday, May 13, 2016

Cows prevent desertification

Cow ensures a prosperous right thinking community & sustainable environment
6. यज्ञपदीराक्षीरा स्वधाप्राणा महीलुका ।
 वशा पर्जन्यपत्नी देवां अप्येति ब्रह्मणा  । । AV10.10.6
गौमाता (यज्ञपदी) यज्ञकर्म करने की प्रेरण देने वाली उत्तम मानसिकता और कर्म करने की प्रेरणा देने वाली , (इराक्षीरा) अन्न और दूध देने वाली , (स्वधाप्राणा) अपने  को अपनाने वालों को स्वतंत्र बनाती है, (महीलुका) पृथिवी गोचर - जिस का विशिष्ट  स्थान है,  वह (वशा) गौ माता (पर्जन्यपत्नी) मेघों से वर्षा के द्वारा सब का पालन करने वाली,  (देवां अप्येति ब्रह्मणा) देवता स्वरूप ज्ञानी जनों को प्राप्त होती हैं  | 
पर्जन्यपत्नी की व्याख्या ;
गृहस्थ में पत्नी जब होती है तब पति पत्नि के साथ रहता है | पत्नि के बिना पति अकेला पड़ कर इधर उधर मारा मारा आवारा फिरता है | गौ और पृथ्वी दोनोंही माता का रूप हैं | बिना गौओं के पृथ्वी भी अधूरी माता है |
 आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि जहां पृथ्वी पर गौएं  होती हैं पर्जन्य – मेघ  भी वहीं वर्षा करते हैं | और पृथ्वी भी जहां गौएं होती हैं वहीं पर  वर्षा के जल को अपने अंदर ऐसे संचित कर के रखती है जैसे रेतस  योनि में | और वर्षा के जल से पृथ्वी वनस्पति रूप संतान देती है | जहां पृथ्वी पर गौ नहीं होंगी वहां पृथ्वी बांझ हो जाएगी , और मेघ भी वहां वर्षा करने के लिए नहीं आएंगे | जहां पृथ्वी पर गौएं होती हैं वहां वर्षा  से पृथ्वी हरी भरी रहती है |
 (गोचर का गौ  के लिए यही  महत्व है , जो दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिक एलेन सेवोरी के  अनुसंधान से यह  सिद्ध भी हो गया है |  वह भूमि जहां गौओं का गोबर और गोमूत्र गौओं के खुरों द्वारा मट्टी में रोंद दिया जाता है वहां मट्टी में वर्षा के जल को सोख लेने की क्षमता बहुत बढ़  जाती है | हरयाली बनी रहती है |  हरयाली में पनप रहे सूक्ष्म जीवाणु  द्वारा आकाश में बादलों को प्रभावित कर ने से वर्षा होतीहै | जिस के परिणाम स्वरूप गोचरों में हरयाली बनी रहती है |  इसी लिए वेद ने गौ को पर्जन्यपत्नी: बताया  प्राचीन काल में गोचर बहुत  बड़े  होते थे | जब गोचर के क्षेत्र से गौएं घास खा लेती थीं तब जो क्षेत्र घास वाले होते थे वहां चली जाती थीं | इस प्रकार गोचर में घास की कभी कमी नहीं रहती थीं | आधुनिक काल में गोचरों का संचालन managed pastures एक वैज्ञानिक विषय है |  हमारे देश में भी गोचर विकास और प्रबंधन  भी पशुपालन शिक्षा अनुसंधान पर कार्य होना चाहिए |

{Landslides in Hills, Desertification of land  Rain Making in  Modern Science & Vedas
(Subodh Kumar)
Man in his pursuit  for urbanization  has drastically reduced the green cover on ground . According to current policy of our Forest Department for conservation of forests entry of cattle for grazing  and humans from getting firewood has been banned  . To discourage the entry of rural folks for getting leaf fodder from naturally growing ‘Banjh’ Quercus family  – a dual purpose leaf fodder and firewood trees have  been gradually replaced with planting of Pine trees. Pine needle fallen from the trees smother the green undergrowth by mulching. This results in total loss of green undergrowth on the Himalayas. The rain inducing bacteria Pseudomonas Syringe get eliminated from the environment.  This is resulting in turning our green Himalayas in to deserts without rains.
 The roots system of the green undergrowth also plays a very important role of soil stabilization. This in turn prevents soil erosion, landslides and floods in the hilly areas.
 Although vegetative cover is known to help rain precipitation, but absence of these microorganisms in thin vegetations could be an explanation for Monsoon clouds bypassing certain green areas. The semiarid and Arid regions having thin vegetation, remain dry in spite of the fact that monsoon clouds pass over these areas.
Science tells us nothing can be created from nothing. For making any rains it is necessary to have water bearing clouds. Till recently the phenomenon of precipitation of clouds was considered only on basis of physical sciences, and artificial rain making experiments were made with solid dry ice to initiate precipitation. But now with developments in biotechnology the role played by microorganisms in rain making is getting to be noticed.
P. syringae also produce  a protein which cause water to freeze at fairly high temperatures, resulting in injury to plants. Since the 1970s, P. syringae has been implicated as an atmospheric "biological ice nucleator", with airborne bacteria serving as cloud condensation nuclei. Recent evidence has suggested that the species plays a larger role than previously thought in producing rain and snow. They have also been found in the cores of hailstones, aiding in bioprecipitation.[5] These Ina proteins are also used in making artificial snow.[6]
Discovery of the role of bacteria such as Pseudomonas Syringe in nucleation of ice at higher temperatures opens the possibility that these bacteria can facilitate precipitation from water bearing clouds  at the prevailing temperature. These bacteria are found profusely in green and rotting leaves at the ground levels. These bacteria are also known to spread very widely in the atmosphere and reach cloud heights on their own. At cloud levels they cause nucleation of ice at the prevailing cloud temperatures, and this induces the clouds to release rains. In absence of these bacteria clouds will have to travel to far colder higher mountainous regions to cause precipitation if any, and thus bypass many areas that were used to experience good rains in the past.
 This microbiological phenomenon, to initiate precipitation of rains is described by the scientists in the report give below.
There are enumerable references in Vedas to artificial rain making activities and specific Yagyas are described to promote rains.   Yagyas can only be the facilitators for inducing the water bearing clouds to release the rains. Even some past experiments by scientists in India could not establish a positive result of Yagyas.( more due to our lack of scientific insights). In presence of widely present vegetation the environments could be rich with rain inducing microbes .  Yagyas performed in such environments could facilitate the transport of these microbes to higher cloud level altitudes and induce precipitation.
This makes it very easy to understand the scientific wisdom of the following Ved mantra from Rig Ved. 
  ऋग्वेद 1/37/11 मरुतो देवता:
त्यं चिद् घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातम मृध्रम् !
प्र च्यावयान्ति  यामाभि: !!
(It is important to bear in mind that according to modern science of microbiology, the entire universe is pervaded by microbes. All life science phenomenons are  progressively being conceive to be caused by actions initiated by microbial populations. In Vedas ‘Maruts’ मरुत are what modern science describes as microbes. Winds, Atmosphere, Rizosphere, Biosphere in fact every physical reality is permeated by Microbes.  This in turn is precisely the case with Maruts as described in Vedas.)
इस वेद मंत्र के तीन भाष्य निम्न लिखित प्राप्त होते हैं
1.महर्षि दयानंद कृत भाष्य से, मरुत देवता , (मिह: ) वर्षा जल से सींचने वाले पवन (यामाभि: )अपने जाने के मार्गों से (घ) ही (त्यम्) उस (नपातम्) जलो को  न गिराने  और (अमृघ्रम्) गीला न करने वाले (पृथुम्) बडे (चित्) भी (दीर्घम्) स्थूल मेघ को (प्रच्यावयान्ति) भूमि पर गिरा देते हैं.
2.सायण भाष्य: (मरुद्गण) निश्चय कर के उस किसी लम्बे चौडे न रोके जाने वाले मेघ के पुत्र (वर्षा) को अपनी यात्राओं के साथ हाँक कर ले जाते हैं.
3.दामोदर सातवलेकर भाष्य: (त्यं चित् घ) उस प्रसिद्ध (दीर्घ) बहुत लम्बे (पृथुं) फैले हुवे (अमृघ्रं) जिस का कोई नाश नही कर सकता ,ऐसे (मिह: न पातं)जल की वृष्टि न करने वाले मेघ को भी यह वीर मरुत् (यामाभि: ) अपनी गतियों से (प्र च्यावयन्ति) हिला देते हैं.
तीनो विद्वत् महानुभावों के उपरोक्त भाष्यों मे एक मुख्य विषय निर्विवादित है कि ऐसे लम्बे बडे मेघों से जो वर्षा नही करते मरुद्गण अपने प्रभाव से वर्षा करा देते हैं
यह कैसे सम्भव होता है इस को आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बता रहा है.पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले सडे पत्तों मे जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं उन मे से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिंगै के  नाम से जाना जाता है . यह सूक्ष्म जीवाणु हरे पत्तों पर पलते हैं औरवायुमंडल मे फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं. इन जीवाणुओं मे मेघ मंडल मे वहां के ताप मान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है. इसी सूक्षमाणु  के प्रभाव से मेघ मंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है.
यदि मनुष्य अपने स्वार्थ वश पृथ्वी पर वनस्पति हरयाली की मात्रा को कम कर देता है, या ऐसे वृक्ष लगाता है जैसे पहाडों पर चीड (pine), जिस से पृथ्वी की हरयाली कम या समाप्त हो जाती है तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर वर्षा के उपयोगी मरुद्गणों का अभाव हो जाएगा. जिस के  परिणाम स्वरूप  वर्षा का अभाव हो जाएगा.
ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरयाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वतावरण मे  उपस्थित हों वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमन्डल मे पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक हो कर शीघ्र वर्षा कराती है. यह कैसे सम्भव होता है इस को आज आधुनिक विज्ञान इस प्रकार बता रहा है.पृथ्वी पर उत्पन्न हरियाली और गले सडे पत्तों मे जो सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं उन मे से कुछ को स्यूडिमोनस सिरिगै के  नाम से जाना जाता है . यह सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल मे फैल कर आकाश की ओर मेघ मंडल तक पहुंच जाते हैं. इन जीवाणुओं मे मेघ मंडल मे वहां के ताप मान पर ही हिम कण उत्पन्न करने की क्षमता होती है. एसी के प्रभाव से मेघ मंडल वर्षा करने को बाध्य हो जाता है.
ऐसे क्षेत्रों मे जहां पर्याप्त हरयाली और वर्षा उपयोगी मरुद्गण वतावरण मे  उपस्थित हों वहां विशेष यज्ञ द्वारा इन मरुद्गणों को मेघमन्डल मे पहुंचाने मे यज्ञाग्नि सहायक हो कर शीघ्र वर्षा कराती है.
वि वृक्षान् हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवना महावधात्
उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत् पर्जन्य: स्तनयन् हन्ति दुष्कृत: ।। RV 5.83.2

ऋग्वेद के मंत्र अनुसार जो व्यक्ति वृक्ष काटते हैं  वे वर्षा के शत्रु होते हैं उन्हे राक्षसों जैसा दण्ड देना चाहिये.
AV 4.15 वृष्टि प्रार्थना For Rain
1. समुत्पतन्तु प्रदिशो नभस्वतीः सं अभ्राणि वातजूतानि यन्तु  ।
 महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु  । ।AV4.15.1
(वर्षा के जल ) बादलों से युक्त उमड़ कर उठें, वायु से सेवित   मेघ मिल कर बड़े वृषभों की तरह गर्जन करते हुए आएं, वेगवती जल की धाराओं से पृथ्वी को तृप्त करें.
2. सं ईक्षयन्तु तविषाः सुदानवोऽपां रसा ओषधीभिः सचन्तां  ।
 वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तां ओषधयो विश्वरूपाः  । । AV4.15.2
बड़े बलशाली महान दान शील मरुत ( सूक्ष्माणु) भलीभांति वर्षा की बौछारों को औषधि तत्वों से परिपूर्ण कर के भिन्न भिन्न स्थानों पर उत्पन्न होने वाले अन्न और औषधीय लताओं वनस्पतियों की वृद्धि करें .
वर्षा  के लोक गीत
3. सं ईक्षयस्व गायतो नभांस्यपां वेगासः पृथगुद्विजन्तां  ।
 वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तां वीरुधो विश्वरूपाः  । । AV4.15.3
आकाश में मेघों को देखने की, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेग पूर्वक वर्षा की धारओं से विविध रूप वाली वनस्पतियों के उत्पन्न होने की आकांक्षा गायन द्वारा स्तुति की प्रेरणा दें. 
वर्षा के लोक गीत
4. गणास्त्वोप गायन्तु मारुताः पर्जन्य घोषिणः पृथक् ।
 सर्गा वर्षस्य वर्षतो वर्षन्तु पृथिवीं अनु  । । AV4.15.4
पृथक पृथक स्थानों पर वर्षा के , मेघों के पृथ्वी  पर बरसने के यशोगान हों .
सूक्ष्माणु द्वारा वाष्पी करण
5. उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ  ।
 महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु  । । AV4.15.5
समुद्र से जलों को ऊपर अंतरिक्ष में चमकते हुए सूर्य के साथ सूक्ष्माणु  गरजते हुए बादलों से वेगवती जल की धाराओं से भूमि को तृप्त करें
गोचर की समृद्धि
6. अभि क्रन्द स्तनयार्दयोदधिं भूमिं पर्जन्य पयसा सं अङ्धि  ।
 त्वया सृष्टं बहुलं ऐतु वर्षं आशारैषी कृशगुरेत्वस्तं  । । AV4.15.6
गर्जना करते हुए, कड़कते  हुए बादल समुद्र को हिला दें.  जल से भूमि को कांतिमयि बना दें. वर्षा की झड़ी से दुर्बल गौओं के लिए गोपालक (गोचर के लिए)  अच्छी  वर्षा की इच्छा करता है .

7. सं वोऽवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघा वर्षन्तु पृथिवीं अनु  । । AV4.15.7
अजगर के समान मोटेमोटे जल आकाश से गिरती हुइ जल की धाराएं  सूक्ष्माणुओं से संचालित मेघ पृथ्वी पर सुरक्षा के लिए अनुकूल वर्षा करें

8. आशामाशां वि द्योततां वाता वान्तु दिशोदिशः  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः सं यन्तु पृथिवीं अनु  । । AV4.15.8
आकाश में सब दिशाओं में बिजली चमके,सब दिशाओं मे वायु चले, सूक्ष्माणुओं से प्रेरित मेघ भूमि को अनुकूल बनाने के लिए आएं.

9. आपो विद्युदभ्रं वर्षं सं वोऽवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत  ।
 मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः प्रावन्तु पृथिवीं अनु  । । AV4.15.9
सूक्ष्माणुओं  से प्रेरित मेघों में विद्युत, अजगर के समान मोटे मोटे जल का दान करने वाले वर्षा के झरने पृथ्वी को अनुकूल बना कर रक्षा करें.
वर्षा जल का महत्व
10. अपां अग्निस्तनूभिः संविदानो य ओषधीनां अधिपा बभूव  ।
 स नो वर्षं वनुतां जातवेदाः प्राणं प्रजाभ्यो अमृतं दिवस्परि  । । AV4.15.10
(वर्षा के ) जलों में जो अग्नि गुण हैं ,जलों के शरीरभूत बादलों से मिली हुई , जो इस जलों को ओषधि गुण द्वारा वनस्पतियों की रक्षक और पालक होती हैं वह अग्नि  प्रकट हो कर हमें वर्षा को प्रदान करे. वे जल बुद्धि मान जन जानते हैं कि वे   द्युलोक से आने वाले अमृत रूप धारण करके प्रजा के प्राण हैं .
वर्षा का जल पृथ्वी का वीर्य
11. प्रजापतिः सलिलादा समुद्रादाप ईरयन्नुदधिं अर्दयाति ।
 प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वानेतेन स्तनयित्नुनेहि  । । AV4.15.11
(प्रजापति) प्रजा का  रक्षक परमेश्वर (सलिल) साधारण  जल को समुद्र को पीड़ित कर-वाष्प बना कर व्यापनशील मेघ के रूप में अन्तरिक्ष की ओर ले जा कर गर्जने वाले मेघ से वीर्य की भांति खूब वृद्धि के लिए पृथ्वी की ओर नीचे वर्षा करता है.
12. अपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः श्वसन्तु गर्गरा अपां वरुणाव नीचीरपः सृज।
 वदन्तु पृश्निबाहवो मण्डूका इरिणानु  । । AV4.15.12
वर्षा का जल प्राणों को देने वाले मेघ से उत्पन्न हमारा पिता-समान  है , जो बादलों की गड़गड़ाहट की ध्वनि से जलों को नीचे की ओर छोड़ता है, पृथ्वी पर  गड्ढों में रहने वाले  भिन्न भिन्न रंग बिरंगे मेंढक इत्यादि हर्षसे खूब टर्र टर्र करते हैं .

13. संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः ।
 वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्दूका अवादिषुः  । । AV4.15.13
वृष्टि के लिए वार्षिक व्रत सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणो की नांई, साल भर सोये पड़े मेंढक वर्षा से तृप्त हुई वाणीको खूब ज़ोर से  बोलते हैं. 

14. उपप्रवद मण्डूकि वर्षं आ वद तादुरि ।
 मध्ये ह्रदस्य प्लवस्व विगृह्य चतुरः पदः  । । AV4.15.14
हे मेंढक मेंढकी के परिवार वर्षा को देख कर आनंद से चारों पैर फैला कर खूब क्रीड़ा करो  और बोलो .  
वर्षा की कामना
15. खण्वखा३इ खैमखा३इ मध्ये तदुरि  ।
वर्षं वनुध्वं पितरो मरुतां मन इछत  । । AV4.15.15
(खण्वखा३इ खैमखा३इ मध्ये तदुरि)   ईड़ा पिंगला सुषम्ना के मध्य मन को केंद्रित  कर के  मरुतों से  अनुकूल  हो कर वर्षा द्वारा हमारा पितरों कि तरह पालन करने की कामना करो..

16. महान्तं कोशं उदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः ।
 तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनन्दिनीरोषधयो भवन्तु  । । AV4.15.16
(आप लोग)  खूब यज्ञादि कर के महान आनंद दायक समृद्धि और ओषधि के कोष को विद्युत और पवन के साथ वर्षा की धाराओं  द्वारा समस्त संसार को सींचो  

David Sands, professor at the Department of Plant Sciences and Plant Pathology, Montana State University, usa, hypothesized that there is a link between rainfall and bacteria in 1982. He didn't find many takers then. He has recently proved that bio precipitation does actually happen. He talks to Kirtiman Awasthi about the experiment and its implications

Findings
We have found that airborne bacteria may play a big role in the precipitation cycle. The bacteria act as nuclei around which ice forms. These biological nuclei can cause freezing at warmer temperatures.

Bacteria
There are three to four species of bacteria that are capable of ice nucleation. One of them, Pseudomonas syringae, is abundant in cool and wet season.The bacterium does not survive in hot (over 30°c) and dry weather. Though a pathogen, it generally survives as a saprophyte (on the plant surface) without causing diseases. These are not pathogenic to humans or animals because they cannot grow at body temperatures. The bacteria are also found in ice and rain drops at higher altitudes, which indicates they play a role in bio precipitation.

Process
Bacteria multiply on the surface of plants and wind then sweeps them into the atmosphere. Water clumps around the bacterium, leading to rainfall. When precipitation occurs, the bacteria make it back to the ground. Even if one bacterium lands on a plant, it can multiply and form groups, thus causing the cycle to repeat.

Experiment
We tried to show that the process holds true by carrying out an experiment. We treated 28 tonnes of wheat seeds with a copper bactericide and planted it in 400 hectares of dry land during spring in Montana. We found the bacteria appeared on the crop. As there were rainstorms during that period, we decided to see if these bacteria were in the air above the field. We held out simple samplers from the window of a small plane which was flown over the experimental field. We were able to detect these bacteria as high as 2 km above the ground. In the lab we then determined that they were ice nucleation active.

Over the years
We didn't receive a particularly positive response from other scientists when we introduced the concept of bio-precipitation at a meeting in Budapest, Hungary, in 1982. In the past 25 years, the science pertaining to these bacteria has progressed considerably. There are dna tests for identification and their genetics are now better understood. There are now large computers capable of providing us with models of clouds and sophisticated forecasting and backtracking of storms. Dead Pseudomonas syringae have been used for 20 years in water cannons to enhance snow making for ski resorts, so we know that they do not just function as ice nuclei in the laboratory. But live bacteria perform better. We found that killing bacteria by boiling or adding enzymes does not lead to effective ice nucleation.

Global warming
Since the bacteria does not grow above 30°c, precipitation could be affected if world's temperature rises. However, compared to other nucleants such as carbon dioxide and silver iodide, the bacteria may still function as effective nuclei. This is because the bacteria are capable of getting water to freeze at temperatures just below 0°c, (-2°c to -7°c), whereas other nucleants require temperatures that are 10-12°c colder.

Precipitation patterns
There are two kinds of approaches to changing global precipitation patterns. One is to let them happen, and the other is to try to ask if we have been unknowingly affecting precipitation by overgrazing, cropping systems, etc. The next step would be to ask what can we do to avert any damage. People have been trying to modify weather for a long time, without much success. Perhaps it is because there have been these bit part biological players in the game.

Implications
A reduced amount of bacteria on crops could affect climate. Also, overgrazing in a dry year could actually decrease rainfall, which could then make the next year even dryer. Drought could be less of a problem once we understand how rainfall is linked to bacteria.

Spread extent
These bacteria have been found almost everywhere but we do not know the extent of their activities, ice nucleation or otherwise. We need to study weather patterns relative to vegetation that supports such bacteria.
Date:
14/04/2008

Source:

Down to Earth Vol: 16 Issue: 20080415}